खालीपन
खाली बैठना भी बड़ा अज़ीब होता है,
पर खयाली पुलाव पकाना तभी तो नसीब होता है।
जा पहुंचा मैं एक दिन गंगा नदी के घाट,
नावों पे केवट बैठे थे लगा के अपनी ठाट।
मैं भी बैठ गया रेती पे,लगा देखने सपने,
अकस्मात बिजली चमकाई तभी भयानक नभ ने।
मैने कहा अभी थम जा तू खोने जरा दे मुझको,
खालीपन पाया मैंने तो क्या होता है तुझको?
नभ ने मेरी एक न मानी,घन,घन,घन बरसाया,
अच्छा भला था बैठा, उसने मुझको खूब भिगाया।
भागा मैं सरपट जा पहुंचा घने पेड़ के नीचे,
जहाँ खड़े थे मुन्नी,राजू अपनी आँखें मींचे।
मन ने सोचा ये भी शायद खाली बैठे उकताए थे,
मेरी तरह ही दिवा स्वप्न को वो भी बाहर आये थे।
रुक गयी बारिश थम गया पानी, निकल पड़ा मैं घर को,
जैसे भीगी चिड़िया उड़ने को झाड़ रही हो पर को।
फिर सोचा घर पे जाकर मैं तीर कौन सा मारूंगा?
कभी फर्श और मेज़ कभी तो पर्दों को ही झाडूंगा।
बेहतर होगा जो मैं जाकर अड्डा कहीं लगाऊ,
खो जाऊ फिर से सपनों में और पुलाव पकाऊ।
जाने को फिर बाग में मैंने अपना रस्ता मोड़ा,
घर जाने के निर्णय को फिर बीच राह में छोड़ा।
हरा भरा था बाग हो रहा पंछियों का शोर था,
फूलों की खुशबू थी हवा में और प्रकाश चहूँ ओर था।
बैठ गया फिर हरी घास पर,लगा तोड़ने तिनके;
सोच रहा था खुश होंगे वे, नन्हें पर हों जिनके।
बड़े पंख जो भींग गये तो हो जाएँगे भारी,
आया चौकीदार तभी और जोर की सीटी मारी,
पटक पटक कर डंडे को फिर उसने मुझे भगाया,
एक बार फिर से तन्द्रा से मैं था गया जगाया।
मैंने बोला,"मैं तो हूँ एक सीधा-सादा सा बंदा",
भाई क्यूँ तुम डाल रहे हो मेरे गले में फंदा?
उसने बोला जल्दी भागो पुलिस की रेड पड़ी है,
बाहर देखो नीली गाड़ी मैडम जी की खड़ी है।
कौन देखता बाहर जा कर,मैंने दौड़ लगाई,
ऊँची थी दीवार वहाँ की मैंने फिर भी छलाँग लगाई।
गिरा मैं नीचे, आँखें मींचे, हड्डी टूट गयी थी,
मैडम के डंडे खाने से ये ही बात सही थी।
चल कर आये कुछ लोग कराने मुझे वार्ड में भर्ती,
कड़क जून में लगी सताने मुझे गज़ब की सर्दी।
पकड़ा फिर कानों को मैंने बार-बार यह सोचा,
अच्छा भला था बैठा घर पे, क्यूँ पाला यह लोचा।
खालीपन के भंवरजाल ने मुझे यहाँ पहुँचाया,
अब मंडराया सर पे मेरे बड़े खर्च का साया।
डर से हाथ पाँव फूले,अब कैसे बैठूँगा खाली,
वजह यही थी,जिसने मुझपे गज़ब विपत्ति डाली।
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