'पेड़ की कहानी' एक पेड़ था थोड़ा पुराना, जर्जर हो चुका था उसका ताना बाना, चिड़ियों ने आना बंद कर दिया था उसकी ओर, हों काली घनी रातें या सुनहरी भोर, फिर भी खड़ा था वो पेड़ एक आस के सहारे, थोड़ा झुक हुआ, पूरा सूखा, अकेला जंगल के किनारे, आस थी उसको कि जी उठूँगा एक दिन मैं भी, मुझ तक भी आएगी शीतल बयार कभी न कभी, कुछ पत्ते थे, मुरझाए से, अनमने से लटके, खाये थे उन्होंने वक़्त के बेशक़ीमती झटके, भरोसा था उसे कि जब तक ये पत्ते रहेंगे, बाकी के पेड़ उसे ज़िंदा मानेेंगे और कहेंगे, दिखाता था वो जंगल को कि वो मज़बूत कितना है, जंगल भी कहता था कि हाँ, इसका तो मोटा तना है, पर हो चुका था वो अंदर से खोखला और बेजान, उसके पत्ते भी गवाँ चुके थे, अपना रंग, अपनी पहचान, आज वो पेड़ गिर गया है, जंगल के एक छोर पर अकेला पड़ा है, आस जो बची थी वो अब टूट चुकी है, टहनियाँ जो साथी थीं वो अब छूट चुकी हैं, वो जंगल से अलग उगा था, या जंगल ही हो गया था उस से दूर, या फिर विचित्र होने को वो ही था मज़बूर, जंगल ने समझा कि वो अकेला ही भला है, उसके पास स्वयं में ही जीने की अद्भुत कला है, है वो भरपूर
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