मानवता
राह में चलते हुए क्या उस पगली को देखा है,
जिसके माथे पे एक प्रश्नवाचक रेखा है?
मैले कपड़ों में लिपटी वो बस एक स्त्री नहीं है,
उसके बदन पे होने वाले अत्याचारों की इतिश्री नहीं है।
न जाने कितनी और सिसकियाँ उसके गले से निकलनी बाकी हैं,
भीड़ भरी जगहों पे उसे कराहते देखना तो बस एक झाँकी है।
कुछ लोगों का मन उस असहाय को देख कर पसीज जाता है,
पर सहारा दे कर विवादों को निमंत्रण देना कौन चाहता है?
उसका घायल शरीर और विकृत मन हमेशा तड़पता है,
और आँखें मानो पूछ रही हों क्या यही मानवता है?
क्या यही मानवता है?
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