बस ये कहने आई हूँ

वंश जाति सब छोड़ के अपने तुझ संग रहने आई हूँ,
बिन पर पंछी उड़ता कैसे बस ये कहने आई हूँ.
छोड़ के अपने मात-पिता को बांधी तुम संग डोर है,
फिर क्यूं दुविधा में रहते तेरे नैना मेरी ओर हैं?
भुला दिया अपना घर आंगन बस तेरी हो जाने को,
तुम क्यूँ अपना कहते हो फिर मुझको छोड़ ज़माने को?
बनकर स्त्री (पत्नी) क्या जीवन भर मैं दूजा स्थान कमाऊँगी?
कब आयेगा वो स्वर्णिम दिन जब मैं प्रथम कहलाऊँगी?
भर दोगे आँचल खुशियोँ से बस ये सुनने आयी हूँ,
बिन पर पंछी उड़ता कैसे बस ये कहने आयी हूँ.

धर्म, गोत्र, और नाम तुम्हारा सब कुछ मैंने अपनाया है,
मान के अपना इस जीवन को तेरे योग्य बनाया है.
आखिर तुम क्यूँ ना दे पाये वो स्थान जो मैंने तुम्हेँ दिया ?
क्या है कारण है क्या बंधन? जिसने तुमको असहाय किया ?
मेरे भी हैँ परिजन, सम्बंधी; मैं भी नहीँ अनाथ हूँ,
सोचा है क्या, मैं छोड़ उन्हेँ कैसे रहती तेरे साथ हूँ?
ना कहती मैं कि छोड़ दो सबको या रह जाओ बस मेरे बनकर,
बस मुझको वो छाया दे दो, सह लूँ धूप मैं जिसमेँ तनकर.
दो सम्मान बराबर मुझको मैं वो ही लेने आयी हूँ,
बिन पर पंछी उड़ता कैसे, बस ये कहने आयी हूँ..
                                    (प्रि...)

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