तुमने अपना हाथ छुड़ाया

जिस पल की तुमसे आस बँधी थी वो क्षण कभी ना आया था,
मध्य चाँदनी रात के तुमने  अपना हाथ छुड़ाया था।

तुमपर था अभिमान मुझे मैं दम्भ पाल कर बैठी थी,
सुघड़ सलोने भाग्य पे अपने इतराती सी ऐंठी थी,

सहसा मेरे इन नयनों में अश्रु बादल छाया था,
मध्य चाँदनी रात के तुमने  अपना हाथ छुड़ाया था।

पहर दोपहर सारे मेरे साथ तुम्हारे कटने थे,
हास्य- रुदन सब तेरे मेरे साथ तुम्हारे बंटने थे,
ढल गयी संध्या छिप गया चंदा
खगवृंद कोलाहल लाया था,
मध्य चाँदनी रात के तुमने  अपना हाथ छुड़ाया था।

मन में तुम, क्रंदन में तुम थे,
लाभ- हानि, यश-अपयश तुम थे।
प्रतिपल मेरे आर्द्र दृगों में प्रतिबिंब तुम्हारा पाया था,
मध्य चाँदनी रात के तुमने  अपना हाथ छुड़ाया था।

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