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थक हार

थक हार चल पड़ी हैं उम्मीदें दबे पाँव, पा न सकीं वो वाज़िब सी लगती कोई छाँव। हो न पायी साँझ, ना हो सका सबेरा, किस ओर ढूँढ़तीं वो अपना कोई बसेरा। मुरझा गयी हैं साँसें एहसानों का बोझ ढो के, खुले आसमाँ से मिलने को उन्हेँ क्यूँ है कोई रोके। ना मिल सका बसेरा जो होता तेरा मेरा, तू डाल गया है गले में बन्धनों का फेरा। आजमां चुकी है किस्मत जितना था आजमाना, ना तू हुआ हमारा ना हो सका ज़माना ।

तुमने अपना हाथ छुड़ाया

जिस पल की तुमसे आस बँधी थी वो क्षण कभी ना आया था, मध्य चाँदनी रात के तुमने  अपना हाथ छुड़ाया था। तुमपर था अभिमान मुझे मैं दम्भ पाल कर बैठी थी, सुघड़ सलोने भाग्य पे अपने इतराती सी ऐंठी थी, सहसा मेरे इन नयनों में अश्रु बादल छाया था, मध्य चाँदनी रात के तुमने  अपना हाथ छुड़ाया था। पहर दोपहर सारे मेरे साथ तुम्हारे कटने थे, हास्य- रुदन सब तेरे मेरे साथ तुम्हारे बंटने थे, ढल गयी संध्या छिप गया चंदा खगवृंद कोलाहल लाया था, मध्य चाँदनी रात के तुमने  अपना हाथ छुड़ाया था। मन में तुम, क्रंदन में तुम थे, लाभ- हानि, यश-अपयश तुम थे। प्रतिपल मेरे आर्द्र दृगों में प्रतिबिंब तुम्हारा पाया था, मध्य चाँदनी रात के तुमने  अपना हाथ छुड़ाया था।

चाहती हूँ

तुमसे दूर नहीं पर ख़ुद के पास जाना चाहती हूँ, अपने सपनों को रंग और उम्मीदों को उड़ान देना चाहती हूँ। आँकना चाहती हूँ खुद की क्षमताओं को हर तरह से अपनी हिम्मत और  काबलियत को नई पहचान देना चाहती हूँ बढ़ाना चाहती हूँ अपनी नज़रों में अपनी ही इज़्ज़त मुझ पर तुम्हारे भरोसे को सम्मान देना चाहती हूँ। रह नहीं पाऊँगी मैं ज़मीन पर रेंगते हुए शायद, इसीलिए इन पंखों को एक आसमान देना चाहती हूँ। ऐसा नहीं कि मुझे तुम्हारा साथ गवारा नहीं, मैं तो खुद में तुम्हारे विश्वास को एक मक़ाम देना चाहती हूँ।