थक हार
थक हार चल पड़ी हैं उम्मीदें दबे पाँव, पा न सकीं वो वाज़िब सी लगती कोई छाँव। हो न पायी साँझ, ना हो सका सबेरा, किस ओर ढूँढ़तीं वो अपना कोई बसेरा। मुरझा गयी हैं साँसें एहसानों का बोझ ढो के, खुले आसमाँ से मिलने को उन्हेँ क्यूँ है कोई रोके। ना मिल सका बसेरा जो होता तेरा मेरा, तू डाल गया है गले में बन्धनों का फेरा। आजमां चुकी है किस्मत जितना था आजमाना, ना तू हुआ हमारा ना हो सका ज़माना ।