यकीन मानो!!
तुम्हें लगता है कि ज़िद्दी हूँ, अड़ रही हूँ मैं यकीन मानो खुद से बस खुद से लड़ रही हूँ मैं। लड़ रही हूँ मैं की तुम्हें सह पाऊँ जो बीत रही है मुझपे वो शायद कह पाऊँ ना चाहते हुए भी खुद को बदल रही हूँ मैं यकीन मानो खुद से बस खुद से लड़ रही हूँ मैं। क्या माँगती थी? क्या माँगती थी मैं तुमसे जो तुम दे ना सके अपनी ही करते रहे मेरे लिए एक पल न रुके, जो ठोकर खाई है अब तो संभल रही हूँ मैं यकीन मानो खुद से बस खुद से लड़ रही हूँ मैं। कहोगे तुम कि तुमने सब कुछ दिया जो कुछ भी बस में था वो सब भी किया उन्हीं सब एहसानों का हिसाब कर रही हूँ मैं यकीन मानो खुद से बस खुद से लड़ रही हूँ मैं। क्यूँ हुआ ? ये क्यूँ हुआ? अब ये कैसा पल है आ गया? वक्त के नहीं अपने ही मुँह पे तमाचा जड़ रही हूँ मैं यकीन मानो खुद से बस खुद से लड़ रही हूँ मैं। क्या तुम वही हो जिसे मैंने अपनी मोहब्बत दी? अपनी तमाम उम्र और नायाब चाहत दी? अब बस इन्हीं खयालों में पड़ रही हूँ मैं यकीन मानो खुद से बस खुद से लड़ रही हूँ मैं।